तुलसीदास मध्यकालीन शक्तिशाली 'भक्ति आंदोलन' की एक बेहद महत्वपूर्ण कड़ी हैं। भक्ति का यह आंदोलन अपने चरित्र में पूर्णतः और मूलतः 'लोक' का आंदोलन था। इसने भारतीय लोकजागरण के अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को संभव बनाया। भारत के इतिहास में भक्ति आंदोलन सामाजिक-धार्मिक परिवर्तन की दृष्टि से निर्णायक रहा है। इसमें भक्ति की महती भूमिका थी। संतों/भक्तों ने भक्ति व धर्म को शास्त्रीय चौखटे से मुक्त करते हुए उसे लोक का आत्मीय अंग बना दिया। अब भक्ति सर्वजन सुलभ वस्तु थी। उसे उसकी शास्त्रीय जड़ताओं/विधि-निषेधों से मुक्त करने का सिलसिला चल पड़ा। ईश्वर और भक्ति के द्वार गरीब, वंचित/अभावग्रस्त, अपढ़ बहुसंख्यक जनता के लिए भी खुल गए। यह थी, भक्ति आंदोलन से जुड़े हमारे संतों/भक्तों की रचनात्मक भूमिका। यह आंदोलन धर्म व समाज की जड़ताओं के खिलाफ प्रतिरोध का एक सुसंगठित प्रयास था, जिसकी कामयाबी शत-प्रतिशत थी। लोकभाषाओं में धार्मिक ग्रंथों के अमृत को सामान्य जन तक पहुँचाने का कार्य शुरू हुआ। परिणामस्वरूप तेरहवीं शताब्दी में नामदेव, ज्ञानदेव आदि मराठी संतों ने हिंदी व मराठी जैसी लोकभाषाओं में सामान्य जन-वंचित भागवत, उपनिषद, वेद आदि ग्रंथों के भाष्य आदि करके संस्कृत व अभिजन वर्चस्व को चुनौती दी। यह अनायास नहीं था कि धर्म व भक्ति के प्रति लोकरुचि व लोकाग्रह में वृद्धि हुई, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों यथा संगीत, कला, स्थापत्य आदि में भक्ति का लोक-संग्रही रूप परिलक्षित होने लगा। इस प्रकार समूचे भारतवर्ष में लगभग साथ-साथ भक्ति की लहर प्रवाहित होने लगी। महाराष्ट्र में नामदेव, ज्ञानदेव सहित ढेरों संत हुए और भक्ति के कई संप्रदाय उठ खड़े हुए जो आज भी जनता के बीच लोकप्रिय बने हुए हैं। ऐसे ही गुजरात में नरसी मेहता, पंजाब में गुरु नानकदेव व अन्य संत-भक्त, बंगाल और उड़ीसा भी इनसे अछूता नहीं रहा। उत्तर में रामानंदजी के शिष्यों को भक्ति आंदोलन को लोक-व्याप्ति देने व उसे अतिशय आत्मीय व अंतरंग बनाने का श्रेय दिया जाना चाहिए। इनमें महात्मा कबीर, रैदास, दादू, रज्जब आदि महान संत हुए, जिन्होंने भक्ति और ईश्वर को सारे निषेधों से मुक्त करके 'लोकमंगल' का साधन बना दिया। यहाँ यह जरूर ध्यान रखने की बात है कि इस दीर्घावधि-व्यापी व विस्तृत क्षेत्र में सक्रिय भक्ति-आंदोलन में भक्ति को सर्वजनसुलभ बनाने का दर्शन केंद्र में रखते हुए खूब प्रयोग हुए हैं। निर्गुण, सगुण और निर्गुण-सगुण दोनों को मान्य ठहराते हुए धारणाएँ सामने आईं।
गोस्वामी तुलसीदास सोलहवीं शताब्दी की उपज हैं। उनके सामने जो समाज विद्यमान था, उसमें बहुसंख्यक जनता अशिक्षित, निर्धन, बेहाल ओर व्याकुल थी, जिसे अपनी मुक्ति के लिए कोई मार्ग ही नहीं सूझता था। समाज के मालिक अभिजन थे। धर्म और ईश्वर पर ताला लगा था। कुल मिलाकर हीन दशा वाले देश में उन्होंने जन्म लिया था। और स्वयं भी चौतरफा अभाव, उपेक्षा और दुर्दशा भोगी थी। लेकिन वे समाज की पीड़ा को समझते थे और उससे उबारने का संकल्प था, उनके सामने। निराला जी की 'तुलसीदास' शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ बहुत कुछ संकेत करती हैं -
'कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम
चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम
वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को
करने को ज्ञानोद्धत प्रहार
तोड़ने को विषम वज्र-द्वार
उमड़े भारत का भ्रम अपार होने को।'1
निराला ने बहुत साफ लिखा है कि चहुँ ओर रूढ़ियों के विषम वज्र-द्वार हैं, जिनसे पार पाना आसान नहीं था और भारतवर्ष भ्रमित था। ऐसे में देश व देशवासियों की मुक्ति का प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जटिल था। तुलसीदास ने अपने युग की जड़ता पर प्रहार किया, सुचिंतित व सुनियोजित तरीके से। उन्होंने भक्ति को लोक-व्यापी स्वरूप देने में कुछ भी प्रयत्न बाकी नहीं रखा। इस संबंध में डॉ. रामविलास शर्मा ने बहुत सटीक टिप्पणी की है - ''तुलसीदास भक्त कवि थे। उनके साधनाकाल के लिए निरालाजी ने 'ज्ञानोद्धत प्रहार' शब्दों का प्रयोग किया। तुलसीदास अपने युग में साधारण जनता के लिए राजमार्ग को कठिन समझते थे। इसलिए उन्होंने भक्ति पर विशेष बल दिया और भक्तिमार्ग का प्रतिपादन किया।''2
रामविलास जी साफ-साफ लिख रहे हैं कि सामान्य जनोनुकूल/सामान्य जन-सुलभ साधन, मुक्ति का, भक्ति है। यह गोस्वामी जी बखूबी जानते थे। क्योंकि यह ऐसा साधन है, जिसमें धन लगना नहीं है, अलग से समय निकालने (मतलब अपने काम का हर्जा करके) की आवश्यकता न थी। इसमें सिर्फ और सिर्फ प्रेम की, स्नेह की दरकार थी -
'प्रीति राम सों नीति पथ चलिय रागरिस जीति।
तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति।'
देखिए कैसा सुंदर और सरल तरीका बता रहे हैं, भक्ति का, कुछ ज्यादा नहीं करना है, भक्त को। उसे भगवान श्रीराम के प्रति प्रेम भाव रखते हुए, अपने राग-द्वेष को काबू में रखते हुए नीति-मार्ग पर चलना है, वह भक्ति के क्षेत्र में सिद्ध हो जाएगा। इस प्रकार तुलसी भक्ति का तौर-तरीका सिखाते हुए एक संयमी नागरिक व नैतिक समाज बनाने का संकल्प प्रस्तुत करते हैं। तुलसी साहित्य में 'भक्ति' के आदर्श की प्रायः चर्चा है। मैं यहाँ सिर्फ निम्नलिखित पद उद्धृत करके तुलसी का भक्ति संबंधी स्पष्ट मंतव्य प्रस्तुत कर रहा हूँ -
'धरम न अरथ न काम रुचि गति न चहउँ निरवान।
जनम-जनम रति राम-पद यह बरदानु न आन।।'3
मानव जीवन के चरम लक्ष्यों को तिलांजलि देकर तुलसी अपने लिए 'रति राम पद' माँगते हैं। यही है, भक्ति। अनन्यता, अखंड निष्ठा, अपने आराध्य के प्रति -
'एक भरोसो, एक बल, एक आस-विश्वास।
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।।'
अपने ईश्वर के प्रति अखंड विश्वास भक्त का चरम लक्ष्य होना चाहिए। यह बाबा तुलसीदास कह रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि तुलसीदास भक्ति के शास्त्रीय स्वरूप से परिचित नहीं थे। लेकिन उन्होंने भक्ति की जन-मुक्ति संबंधी असाधारण क्षमता का अनुमान करते हुए इस संबंध में नए प्रयोग भी किए और हठवादी रवैया त्यागकर भक्ति-मार्ग को सरल, सुगम व जनमार्ग के रूप में परिवर्तित कर दिया। ऐसा करते हुए वे उदार व सहिष्णुतावाला किंतु सम्यक दृष्टि संपन्नता वाला रास्ता चुनते हैं। हम सबको विदित है कि समाज में एक तरफ निर्गुण भक्ति का जोर शोर से प्रचार-प्रसार था, वहीं दूसरी ओर सगुण मार्गी थे। संघर्ष अवश्यंभावी था। यही नहीं सगुण मार्ग में भी आराध्य के प्रश्न पर समाज एकमत नहीं था। कोई शैव था तो कोई शाक्त, कोई रामोपासक था, कोई कृष्णोपासक। धर्म और ईश्वर के मसले बेहद संवेदनशील होते हैं। ऐसे में हिंदू समाज की तत्कालीन रूपरेखा और उसकी जीवन-दृष्टि कैसी क्षीण और संकीर्ण रही होगी? सहज अनुमान का विषय है। तुलसीदास की कठिन परीक्षा थी, लेकिन अपनी ज्ञान-साधना, भक्ति व लोकसंग्रही दृष्टि के कारण उन्होंने इन सब संकीर्णताओं से पार पा लिया। सबका समन्वय करके। यह आसान काम कदापि नहीं था, किंतु तुलसी तो लोकनायक थे। उन्होंने दुरूह कार्य आसान कर दिया। यहाँ इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा गोस्वामी जी पर की गई टिप्पणी विशेष रूप से उद्धरणीय है - ''तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सफलता मिली, उसका कारण यह था कि वे समन्वय की विशाल बुद्धि लेकर उत्पन्न हुए थे। भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो।''4 तुलसीदास निर्गुण और सगुण के रगड़े का सुंदर समाधान यह कहकर देते हैं कि -
'सगुनहि अगुनहि नहि कुछ भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरूप अलख अजजोई। भगत प्रेमबस सगुन सो होई।'5
अर्थात दोनों में कोई भेद नहीं है, किंतु वरीयता देने की बात सामने आती है तो यहाँ बाबा समाज-रुचि का, समाज-मर्यादा का और सुगमता की कसौटी पर सगुण भक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं -
'सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विजपद प्रेम।'6
तुलसीदासजी का चयन बहुत स्पष्ट है और इस चयन के आधार भी स्पष्ट हैं। सामान्य जन के लिए क्या श्रेयस्कर है? इसी आधार पर भक्ति, उसकी विधि और आराध्य का सुनिश्चयन होगा। बाबा के यहाँ शास्त्रोक्त (भागवतादि ग्रंथों में कथित) भक्ति के प्रकारों की भी स्पष्ट चर्चा है। उनके यहाँ नवधा भक्ति के सब प्रकार श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन, सब तरह की भक्ति-पद्धतियों की प्रायः चर्चा आती है, किंतु तुलसीदास को 'दास्यभाव' की भक्ति अतिशय प्रिय है -
'अस अभिमान जाई जनि भोरें। मैं सेवक रघुपति पति मोरें।।'
'सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए।।'7
शास्त्रोक्त नवधा भक्ति के साथ ही साथ तुलसीदास ने एक और तरह की नवधा भक्ति, जिसका प्रतिपादन 'अध्यात्म रामायण' में मिलता है, को जनोपयोगी जानकर उत्साहपूर्वक समर्थन किया है -
'नवधा भगति कहीं तोहि पाहीं। सावधान सुनि धरि मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरुपद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथी भगति मम गुनगन करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा। पंचम भजनु सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहुकर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातवँ सम मोहि मय जगदेखा। मोते संत अधिक करि लेखा।।
आठवँ कथा-लाभ संतोषा। सपनेहु नहि देखइ पर दोषा।।
नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
नव महु एकौ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
सोई अतिसय भामिनि प्रिय मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भई सोई।।'8
यह नवधा भक्ति का उपदेश/संदेश भगवान श्रीराम द्वारा शबरी जैसी निम्नकुलीन, अपढ़, असंस्कृत स्त्री को दिया जा रहा है। यानी भक्ति सर्वसुलभ है। यहाँ जाति, संप्रदाय, स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं है। यह तुलसीदास की व्यापक दृष्टि का परिणाम है। कहीं कोई शास्त्रीय विधि-निषेध नहीं, आसान रास्ते, एक नहीं नौ और उसमें भी कहते हैं एक भी, जिसके पास है, वह मेरा अत्यंत प्रिय है और हर प्रकार से वह दृढ़ भक्त है। यह है तुलसी की सामंजस्यकारिणी प्रतिभा। वे एक सशक्त समाज का स्वप्न साकार करना चाहते थे जो सिर्फ मजबूत ही नहीं होगा, बल्कि मानवीय भी होगा। नैतिक होगा। इसीलिए तुलसीदास भक्ति का सर्वाधिक सरलीकृत/सुगम स्वरूप सामने रखते हैं, जिसमें संपूर्ण चराचर जगत की भागीदारी हो सकती है। यानी भक्त कोई भी हो सकने की पात्रता रखता है। इसीलिए वे शबरी व गीध आदि को भी सिद्ध भक्त घोषित करते हैं, जिनको प्रभु श्रीराम ने उनके प्रेम के वश में होकर मोक्ष प्रदान किया -
'सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्ह रघुनाथ।
नामु उधारे अमित खल बेद बिदित गुननाथ।।'9
तुलसीदास की भक्ति की गंगा में सबके लिए समान अवसर हैं। वे वर्ण, जाति, धर्म, संप्रदाय आदि आधारों पर किसी भी व्यक्ति को भक्ति-पथ पर चलने से बरजते नहीं है और उन्हें सुगति दे देते हैं -
'देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई।।
कहि निषाद निज नाम सुबाती। सादर सकल जोहारी रानी।।
जानि लखन सम देहिं असीसा। जियहु सुखी समलाख बरीसा।।
निरखि निषादु नगर नर-नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।'10
केवट, निषाद, कोल, भील, बंदर, भालू, उपेक्षित स्त्रियों, जटायु जैसा पक्षी सिर्फ 'प्रेमाभक्ति' के बल पर मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं। उन्हें आदर व सम्मान भी प्राप्त हो जाता है -
'बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।11
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहहु पुर आवत जाता।।'12
निषाद के अयोध्या से विदा होते समय श्रीराम के उद्गार हैं, जिसमें गोस्वामी जी ने उनसे निषाद को सखा और भरत जैसा भाई कहलवाया है। कितना आत्मीय और मानवीय प्रसंग है? क्या कोई इसके आसपास का वर्णन अन्यत्र है? रामविलास जी ने तुलसीदास की प्रगतिशील दृष्टि को रेखांकित करते हुए लिखा है -
''जब राम चित्रकूट पहुँचते हैं, तब तुलसीदास कोल किरातों को नहीं भूलते। 'यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नवनिधि घर आई।' बीस पंक्तियों में राम से उनकी भेंट का वर्णन करने के बाद तुलसीदास यह टिप्पणी देते हैं - 'रामहिं केवल प्रेम पियारा। जानि लेउ जो जाननिहारा।'' जब आप याद करेंगे कि मुगल बादशाहों के जमाने में इन कोल-किरातों का आखेट होता था और जो पकड़े जाते थे, वे काबुल में बेच दिए जाते थे और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शासन में लाखों की तादाद में इन्हें जरायम पेशा करार दिया गया, तब तुलसीदास की प्रगतिशीलता समझ में आएगी।''13
गोस्वामीजी के आराध्य श्री राम विष्णु के अवतार हैं और वे मनुष्यों की तरह माँ के गर्भ से उत्पन्न होते हैं, सामान्य जीवनचर्या में संलग्न होते हैं और फिर समाज में धर्म (व्यवस्था) की सुस्थापना के लिए, समाज को नैतिक व मानवीय बनाने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। उनके जीवन में धर्म और नीति से ऊपर कुछ भी नहीं है। इसके लिए उन्हें व्यक्तिगत जीवन में त्याग करना पड़ता है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। समाज मर्यादा से, अनुशासन से दीर्घजीवी होता है। इसलिए श्रीराम स्वप्न में भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं। उनका जीवन भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का अजस्र स्रोत है। सामान्य जन श्रीराम के शक्ति, शील और समन्वित अप्रतिम स्वरूप पर न्योछावर है और न्योछावर हो भी क्यों नहीं? गोस्वामी जी ने लिखा है कि -
'गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदौ सीताराम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।।'14
सुखी, संपन्न और अघाए लोगों की सब तरफ पूछ होती है। उन्हें हाथों-हाथ लिया जाता है, लेकिन गरीब, दुखी, सब तरह से वंचित, उपेक्षित, शबरी, निषाद और जटायु की सुधि कौन लेता है?
'ऐसो को उदार जगमाहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं।
जो गति जोग विराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानीं
सो गति देत गीध सबरी कहुँ, प्रभु न बहुत जिय जानी।
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा विभीषन कहँ अति सकुच सहित हरि दीन्हीं।
तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करै कृपानिधि तेरो।।' 15
तुलसीदास अपने आराध्य को व्यक्तिगत मोक्ष के लिए कब्जे में न करके उनको प्रमाणों सहित लोक हितकारी रूप में स्थापित करते हैं। भगवान श्रीराम लोक रक्षक हैं। उन्होंने लोकमंगल के लिए दुखियों के कष्ट मिटाने के लिए धरती पर सामान्य रूप में आना स्वीकार किया है। वे बेहद मानवीय हैं, कृपाकर हैं, करुणानिधान हैं, गरीब निवाज हैं। तुलसी ने उन्हें प्रायः अत्यंत करुण होकर भावपूर्ण तरीके से स्मरण किया है। विनयपत्रिका में ऐसे ढेरों पद हैं, जिनमें तुलसी की व्यक्तिगत परेशानियों के रूप में समाज के दीन, दुःखी लोगों की अर्जी श्रीराम दरबार में पेश की गई है। विनयपत्रिका का निम्नलिखित पद उद्धरणीय है -
'जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे।
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे।
खग-मृग, ब्याघ, पषान बिटप जड़ जवन कवन सुर तारे।
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब माया-बिबस बिचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे।'16
देवता, दानव, मुनि आदि सभी माया ग्रस्त हैं। उन्हें अपने से ही फुर्सत नहीं है। इसीलिए गोस्वामी जी पतित पावन, दीनों के प्रिय दीनानाथ और पशु, पक्षी, जीव-जंतु सबका उद्धार करने वाले प्रभु श्रीराम की शरण हैं और यह उनका स्पष्ट संकेत, उनके जैसे सभी दुखियों के लिए है कि व्यर्थ भटकने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु श्रीराम परम करुणाकर हैं, यह सर्वविदित है। इसलिए दीन-दयालु श्रीराम की शरण में विश्वस्त होकर बने रहिए। मुक्ति लाभ अवश्य प्राप्त होगा।
तुलसी के आराध्य अपने भक्तों को अपने ऊपर रखते हैं -
'भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक रामकर दासा।।'17
राम का दास राम से बढ़कर है। तुलसीदास की भक्ति सिर्फ मुक्ति (मोक्ष) का टिकट नहीं दिलाती है बल्कि लोक में रहते हुए, लोक की तमाम असाध्य कठिनाइयों से भी मुक्ति दिलाती है। शरीर के रहते ही चारों पुरुषार्थों की उपलब्धि का साधन श्रीराम की भक्ति है -
'सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहि अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।'18
मनुष्य को शरीर धारण करते हुए दुख-दारिद्रय का निकट सामना करना पड़ता है। जीवन, वह भी गरीब आदमी का, आसान नहीं है। तुलसी को गरीब आदमी की इस पीड़ा का अंतरंग ज्ञान था। तभी उन्होंने भूख और दरिद्रता पर जितना लिखा है, उतना किसी अन्य बड़े रचनाकार ने नहीं लिखा है -
'नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।'19
'आगि बड़बागि ते बड़ी है आगि पेट की।'20
अपने समय के भयावह यथार्थ का जैसा मार्मिक ज्ञान, उन्हें था, किस रचनाकार के यहाँ इतने स्पष्ट शब्दों में दिखता है?
'खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि।
बनिज को बनिक, न चाकर को चाकरी।।
जीविका विहीन लोग, सीद्यमान सोच बस।
कहैं एक-एकन सों, कहाँ जाईं, का करी।।'21
कैसी परवशता है। कुछ सूझता नहीं है। किंकर्तव्यविमूढ़ता की हाहाकारी स्थिति है। यह पारलौकिक बात नहीं है। सीधे-सीधे अपने लोक की दुर्दशा के प्रामाणिक चित्र हैं। इस प्रकार तुलसीदास लोक में रहकर, लोक की चिंता करते हुए, लोक को विश्वास देकर जीवन में सरसता पैदा करते हुए श्रीराम की भक्ति की ऐसी परिकल्पना करते हैं, जो जाति, धर्म, संप्रदाय, रंग-रूप, धनी-निर्धन, ऊँच-नीच के संकीर्ण भेदों से ऊपर उठकर 'लोकहितकारी' राजमार्ग बन सके, जिस पर चलते हुए सामान्य व्यक्ति सरल तरीके से अपना जीवन व्यतीत करते हुए, समाज की अभिवृद्धि में अपना योगदान करते हुए अपने परलोक के प्रति भी आशावान बना रहे।
संक्षेप में गोस्वामी जी अपनी भक्ति के माध्यम से लोकमुक्ति का शत-प्रतिशत प्रामाणिक साधन उपलब्ध करा रहे थे। डॉ. रामविलास शर्मा की तुलसी पर की गई टिप्पणी को उद्धृत कर तुलसी की 'लोकमुक्ति' वाली दृष्टि को सहज ही समझा जा सकता है - ''तुलसी आत्मकेंद्रित व्यक्ति न थे। उन्हें जितना अपने दुख का ज्ञान था, उतना ही दूसरों के दुखों का भी। उन्होंने राम में जितनी करुणा की कल्पना की थी, वह सब उनके हृदय में विद्यमान थी। तुलसी की यह विराट मानवीय सहानुभूति उनकी भक्ति का अभिन्न अंग है। इसी कारण वह हमारी जनता के गुणों का जितना सुंदर चित्रण कर सके हैं, उतना अन्य कवि नहीं। राम, लक्ष्मण, सीता, भरत आदि के चरित्र में उन्होंने भारतीय जनता की ही शूरता, धैर्य त्याग, स्नेह आदि गुणों की उदात्त अभिव्यंजना की है। कामायनी के लेखक जयशंकर प्रसाद ने तुलसी और राम के संबंध में एक बड़ी मार्मिक पंक्ति लिखी थी - ''मानवता को सदय राम का रूप दिखाया।''22
संदर्भ
1 . तुलसीदास, पृ. 23
2 . तुलसी की भक्ति, भारतीय सौंदर्यबोध और तुलसीदास, पृ.426
3 . रामचरितमानस, अयोध्याकांड, दोहा-204
4 . सफलता का रहस्य, तुलसी, सं.- उदयभानु सिंह, पृ. 235
5 . रामचरितमानस बालकांड, दोहा सं.-115, चौपाई-1
6 . रामचरितमानस, सुंदरकांड, दोहा सं.-48
7 . रामचरितमानस, अरण्यकांड, दोहा सं.-10, चौपाई-11
8 . रामचरितमानस, अरण्यकांड, चोपाई 4, दोहा सं. 35, चौपाई 1,2,3,4
9 . रामचरितमानस, बालकांड, दोहा सं.-24
10 . रामचरितमानस, अयोध्याकांड, दोहा सं.-195, चौपाई 2 व 3
11 . रामचरितमानस, उत्तरकांड, दोहा सं.-19, चौपाई- 3, 5
12 . रामचरितमानस, उत्तरकांड, दोहा सं.-19, चौपाई- 2
13 . तुलसी साहित्य के सामंत विरोधी मूल्य, भारतीय सौंदर्य बोध और तुलसीदास, पृ. 454
14 . रामचरितमानस, बालकांड, दोहा सं.-18
15 . विनयपत्रिका, पद सं.-162
16 . विनयपत्रिका, पद सं.-101
17 . रामचरितमानस, उत्तरकांड, दोहा सं.-119, चौपाई-8
18 . रामचरितमानस, बालकांड, दोहा सं.-2
19 . रामचरितमानस, उत्तरकांड, दोहा सं.-120 ख, चौपाई-7
20 . कवितावली, कवित्त सं.-96 का अंश
21 . कवितावली, पद सं.-97
22 . तुलसी की भक्ति, भारतीय सौंदर्यबोध और तुलसीदास, पृ.सं.- 438-39